आरएसएस की सफलता का रहस्य

इस वर्ष 2025 विजयादशमी का पावन पर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के शताब्दी वर्ष का शुभारम्भ है। हिन्दू संगठन और राष्ट्र को परमवैभव पर ले जाने के जिस उद्देश्य को लेकर सन 1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। उस ध्येय पथ पर संघ निरन्तर बढ़ता जा रहा है। किसी भी जीवंत संगठन के लिए शताब्दी वर्ष तक की यात्रा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी जाती है। कोई भी संगठन किसी निश्चित उद्देश्य से बनता है और दस, बीस, पचास साल में उसकी महत्ता घट जाती है। जबकि संघ में ऐसा नहीं है। अभी भी संघ बूढ़ा नहीं बल्कि चिरयुवा है। इस सुदीर्घ यात्रा में संघ ने राष्ट्र के नवोत्थान का पथ आलोकित किया है। देशवासियों में देश के प्रति निष्ठा व समर्पण का भाव जगाया है।

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Lucknow, 11 Oct, 2024 02:36 PM
आरएसएस की सफलता का रहस्य

बृजनन्दन राजू

आईपीएन। इस वर्ष 2025 विजयादशमी का पावन पर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के शताब्दी वर्ष का शुभारम्भ है। हिन्दू संगठन और राष्ट्र को परमवैभव पर ले जाने के जिस उद्देश्य को लेकर सन 1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। उस ध्येय पथ पर संघ निरन्तर बढ़ता जा रहा है। किसी भी जीवंत संगठन के लिए शताब्दी वर्ष तक की यात्रा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी जाती है। कोई भी संगठन किसी निश्चित उद्देश्य से बनता है और दस, बीस, पचास साल में उसकी महत्ता घट जाती है। जबकि संघ में ऐसा नहीं है। अभी भी संघ बूढ़ा नहीं बल्कि चिरयुवा है। इस सुदीर्घ यात्रा में संघ ने राष्ट्र के नवोत्थान का पथ आलोकित किया है। देशवासियों में देश के प्रति निष्ठा व समर्पण का भाव जगाया है।

अब तक की यात्रा में हिन्दू संगठन के साथ - साथ आम लोगों का विश्वास जीतने और राष्ट्र जागरण के प्रयास में संघ पूर्णतया सफल रहा है। देश दुनिया में आर.एस.एस. नाम से विख्यात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक संगठन है। संघ की तुलना किसी दूसरे संगठन से नहीं कर सकते क्योंकि तुलना करने के लिए भी इसके जैसा कोई होना चाहिए। इसीलिए बहुत से लोग स्वार्थवश संघ को बुरा भला कहते हैं। कुछ लोग अज्ञानवश भी संघ की आलोचना करते हैं क्योंकि उनको संघ की असलियत पता नहीं है।

नागपुर से शुरू हुआ संघ विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर चुका है। इस वटवृक्ष की छांव में भारत की संस्कृति और परम्परा पुष्पित पल्लवित हो रही है। आज 50 से अधिक संगठन विविध क्षेत्रों में संघ से प्रेरणा लेकर कार्य कर रहे हैं। यह सभी संगठन स्वायत्त जरूर हैं लेकिन उनके पीछे संघ की शक्ति ही सक्रिय है। विविध क्षेत्रों में कार्य करने वाले संघ के आनुषांगिक संगठन विश्व के शीर्ष संगठनों में शुमार हैं। चाहे किसान संघ हो, मजदूर संघ हो, विद्यार्थी परिषद हो, वनवासी बंधुओं के बीच कार्य करने वाला संगठन वनवासी कल्याण आश्रम हो, शिक्षा के क्षेत्र में विद्या भारती,धर्म के क्षेत्र में सक्रिय विश्व हिन्दू परिषद हो या फिर राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय भारतीय जनता पार्टी। यह सब विश्व में चोटी के संगठन हैं। कुल मिलाकर देखेंगे तो पायेंगे समाजजीवन का ऐसा कोई क्षेत्र अक्षूता नहीं है जिस क्षेत्र मेें संघ के कार्यकर्ता काम न कर रहे हों। लोगों के लिए यह आश्चर्य का विषय है कि ऐसी कौन सी शक्ति या विजन है कि संघ इतना पुराना संगठन होने के बावजूद उसकी शक्ति नित्यकृप्रति बढ़ती जा रहै। लोग कहते हैं कि आखिर

संघ की सफलता का रहस्य क्या है? यह जानने के लिए संघ स्थापना की पृष्ठभूमि पर गौर करना आवश्यक होगा। डा. हेडगेवार ने राष्ट्र की समस्याओं का आकलन किया और उनके समाधान के सूत्र खोजे।

जिसमें प्रमुख कारण था देशभक्ति का अभाव। आपसी संबंधों का अभाव। जागरूकता का अभाव। इसके लिए संघ संस्थापक ने शाखा नामक अभिनव कार्यपद्धति विकसित की। डा. हेडगेवार ने कहा कि हम शाखा के माध्यम से स्वयंसेवक तैयार करेंगे और यही स्वयंसेवक ही आगे चलकर समाज में बदलाव लायेेंगे।

नित्य प्रति लगने वाली शाखा

डा. केशव बलिराम हेडगेवार ने सन 1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में संघ की स्थापना की। प्रथम संघ की शाखा मोहिते का बाड़ा में शुरू हुई। इसके बाद शाखा का विस्तार होता गया। व्यक्ति निर्माण में शाखा का प्रयोग अद्धितीय अनुपम व अनूठा है। संघ की सफलता का रहस्य शाखा में ही निहित है। अनेकों संगठन संघ की भांति शाखा चलाने की बात करते हैं लेकिन उन्हें यह पता नहीं कि शाखा चलाने के लिए अनेकों स्थानीय कार्यकर्ता व प्रचारकों की लम्बी श्रंखला का कठोर परिश्रम तथा समय लगता है। इसी त्याग तपस्या का प्रतिफल है शाखा। शाखा के माध्यम से संघ ने व्यक्ति निर्माण करने में सफलता प्राप्त की है। शाखा प्रतिदिन 60 मिनट की ही लगती है। शाखा के कार्यक्रम तय हैं। पूरे एक घंटे का शारीरिक व बौद्धिक कार्यक्रमों का नियोजन है। शाखा का प्रारम्भ व विकिर (समापन) सीटी से होता है। शाखा के कार्यक्रमों से स्वयंसेवकों में विविध गुणों का विकास होता है। देश का कार्य करने के लिए अपना शरीर सशक्त होना चाहिए। इसके लिए व्यायाम आवश्यक है। प्रतिदिन शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। शाखा में मुख्य शिक्षक की आज्ञा का पालन सब करते हैं चाहे संघ के सरसंघचालक ही क्यों न हों।

मुख्य शिक्षक की आज्ञा होती है अग्रेसर। शाखा में कितनी भी अधिक संख्या क्यों न हो जो स्वयंसेवक अग्रेसर रेखा पर आ गया शेष सब स्वयंसेवक अग्रेसर के पीछे ही खड़े होते हैं,फिर आयु या कद का बंधन नहीं रहता है। उसी तरह संघ में एकसह सम्पत एक आज्ञा होती है। इसका अर्थ होता है एक लाइन में खड़े होना। इसमें भी कोई भी स्वयंसेवक जो पहले आकर खड़ा हुआ उसके बगल में ही सब खड़े होंगे। छोटे बड़े का कोई भेद नहीं। शाखा में आने वाले सभी स्वयंसेवक एक दूसरे को भाई साहब कहकर अभिवादन करते हैं। पांच साल का स्वयंसेवक भी 70 साल के स्वयंसेवक को भाई साहब ही कहता है। स्वयंसेवकों में यह भाव पैदा किया जाता है कि हम सभी भारत माता के पुत्र हैं तो हम सब आपस में भाई-भाई हैं। संघ शाखा के इसी भाव के द्वारा ही नित्य सिद्ध शक्ति खड़ी होती है।

प्रचारक पद्धति

डा. हेडगेवार ने नागपुर से बाहर अन्य प्रदेशों में संघ कार्य विस्तार के लिए युवाओं को भेजना शुरू किया। तब से प्रचारक पद्धति शुरू हो गयी। संघ में प्रचारक ऋषि परम्परा के समान साधक माने जाते हैं। संघ के स्वयंसेवक प्रचारकों को अपना आदर्श मानते हैं। संघ कार्य की मुख्य धुरी प्रचारक ही होते हैं। इन प्रचारकों के भोजन जलपान इत्यादि की चिंता स्वयंसेवक ही करते हैं। प्रचारक पूरा समय देकर संघ का कार्य करता है। 

प्रचारक

हिन्दू-हिन्दू भाई का केवल गीत नहीं गाते हैं उसे जीवन में उतारते हैं। रज्जू भैया,अशोक सिंघल जैसे अनेकानेक युवा जो प्रचारक निकले क्षमता प्रतिभा की कोई कमी नहीं थी। पर सब कुछ संघ में रहकर भारत मां के चरणों में समर्पित कर दिया। बड़ी संख्या में निकले इन प्रचारकों के कारण ही संघ का काम तेजी से बढ़ा है। संघ के प्रचारक की दिनचर्या प्रातः चार बजे से शुरू होकर रात 11 बजे से पहले सोने का कोई प्रश्न ही नहीं होता।

प्रचारक चार बजे अवश्य जग जाता है क्योंकि उसे नित्य प्रभात की शाखा पर प्रवास करना होता है। प्रचारक के नाते जिस क्षेत्र में वह है वहां संघ का काम बढ़े बस यही उसकी अपेक्षा रहती है। प्रचारकों का समय-समय पर स्थान परिवर्तन भी होता रहता है। यह भी गारंटी नहीं कि उनका काम अच्छा रहेगा तो वहीं रहेंगे। उनका कार्यक्षेत्र यहां तक कि एक संगठन से दूसरे संगठन में भी भेजा जाता है। जब पंजाब में खालिस्तानी उग्रवाद चरम पर था। बिना केश कृपाण वालों की कब हत्या हो जाए ऐसे संकट के काल में पूरे देश से प्रचारक पंजाब भेजे गए। अनेक प्रचारकों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी। कुछ समय पहले तक यही हाल काश्मीर का भी था। समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में जो आज परिवर्तन दिखाई दे रहा है उस परिवर्तन के पीछे संघ से भेजे गये प्रचारकों की मेहनत ही है। पंडितदीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी बाजपेई, दत्तोपंत ठेंगड़ी, मोरोपंत पिंगले और नरेन्द्र मोदी प्रचारक परम्परा के ही प्रासाद हैं।

संघ कार्य का आधार स्थानीय कार्यकर्ता  

संघ में सम्पूर्ण कार्य का मुख्य आधार सामान्य स्वयंसेवक ही है। जो विद्यार्थी है,व्यवसायी है किसान है या गृहस्थी चलाने के लिए अन्य कोई कार्य करता है। संघ का वास्तविक आधार समाज का वही सामान्य नागरिक है। संघचालक,कार्यवाह तथा सामान्य  जीवन जीने वाले अन्यान्य स्वयंसेवक सब प्रकार के व्यक्तिगत मोह,ममता,सुख दुख काम धंधे के खतरे को उठाते हुए संघ का काम करते हैं। संघ ने सम्पूर्ण समाज से केवल एक प्रतिशत लोगों को आने के लिए कहा। उन एक प्रतिशत से भी कहा कि आपका केवल 24 घंटे से मात्र एक घंटे ही चाहिए। शाखा लगाने से लेकर संघ के सारे कार्य स्थानीय कार्यकर्ता ही करते हैं। स्थानीय कार्यकर्ताओं के बल पर ही संघ बढ़ता है। प्रचारकों की चिंता से लेकर संगठन की मीटिंग बैठक,कार्यक्रम व वर्गों की व्यवस्था स्वयंसेवक ही करते हैं। संघ के स्वयंसेवक वर्ष में एक बार गुरू दक्षिणा करते हैं। इसी से संघ का खर्चा चलता है।

आत्मीयता

संघ में कहा जाता है कि शुद्ध सात्विक कार्य अपने कार्य का आधार है। तो यह केवल कहा ही नहीं जाता है बल्कि यह वास्तविकता भी है। आत्मीयता ही संघ कार्य का आधार है। संघ के कार्यकर्ता बिना लोभ लालच व राग द्वेष के बिन निःस्वार्थ भाव से अहर्निश संघ कार्य करते हैं। यह सब आत्मीयता के कारण। क्योंकि संघ में प्रचारकों व  वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का इतना स्नेह मिलता है कि कार्यकर्ता उस काम को पूरा करने के लिए प्राण प्रण से जुटा रहता है। अपनी नौकरी से समय निकाल लेगा, घर के कामों से संघ के कामों के लिए समय निकाल लेगा। भारतभर में अनेक संगठन हैं लेकिन जो आत्मीयता का भाव संघ में है उस प्रकार की आत्मीयता का भाव अन्य किसी भी संगठन में नहीं है। आत्मीयता ही संघ की रीति नीति प्रकृति व स्वभाव बन गया है। जब संघ का स्वयंसेवक एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाता है तो वहां वह यह अनुभव करता है। मैं संघ का स्वयंसेवक हूं बस इतना सुनते ही भाव बदल जाता है। नागपुर में पूरे देश से लोग तृतीय वर्ष करने आते हैं। एक साथ रहते हैं। हर एक गण में कम से 10 प्रान्तों के कार्यकर्ता रहते हैं। इसी तरह गट में भी अलग -अलग प्रान्तों के कार्यकर्ता रहते हैं। अलग भाषा-भाषी और खान-पान होने के बाद भी परस्पर इतनी आत्मीयता रहती है कि वह बंधु भाव जीवन पर्यन्त बना रहता है।

विचार

जिस ध्येय की पूर्ति के लिए संघ काम करता है। उसकी स्पष्ट कल्पना कार्यकर्ताओं में होनी चाहिए। राष्ट्र प्रथम,भारत हिन्दू राष्ट्र है। हिन्दू -हिन्दू भाई है। एक जन,एक संस्कृति एक राष्ट्र यही संघ का विचार है। यह देश समाज व राष्ट्र हमारा है। इसकी रक्षा कराना हमारा दायित्व है। विचार यदि आचार न बनते व्यर्थ तत्व का गायन है। इसलिए संघ में जो कहा जाता है वह कार्यकर्ताओं व संघ के पदाधिकारियों के जीवन में दिखता है। अन्यथा हमारे विचार कितने भी श्रेष्ठ क्यों न हों अगर वह जीवन व आचरण में नहीं दिखते तो उसका कोई महत्व नहीं रहता। इसलिए संघ में बंधुभाव व समरसता केवल कहने के लिए नहीं बल्कि है। एक और सबसे महत्व की बात है कि संघ प्रतिक्रियावादी नहीं है।

संघ की एक मति व गति है। उसी गति से संघ काम करता है। संघ कोई भी निर्णय जल्दबाजी,हड़बड़ी या उतावलेपन में नहीं लेता। कोई भी तात्कालिक प्रश्न आने पर संघ व्यग्रता नहीं दिखाता। तात्कालिक प्रश्न सम्मुख आया उसके निराकरण में कितनी शक्ति लगाना इसका योग्य विचार करके ही संघ अपनी शक्ति लगाता है। यही संघ की सफलता का रहस्य है।

(उपर्युक्त लेख लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं कि इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो।)

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