लोकमाता देवी अहिल्या बाई
Lokmata Devi Ahilya Bai

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Lucknow, 26 May, 2025 08:20 PMहरिश्चंद्र श्रीवास्तव
आईपीएन। अहर्निश कठिन संघर्ष, धैर्यशीलता, संयम, धर्मपरायणता, वीरता, बुद्धिमत्ता, प्रसाशन कुशलता, ओजस्विता, प्रजावत्सलता, न्यायप्रियता, कुशल नेतृत्व, दानशीलता, त्याग, तपस्या, अत्यंत सहजता सरलता, सिद्धांतों के लिए अत्यंत कठोरता और सनातन संस्कृति के प्रति समर्पण इन सबको समुच्चय मूर्तमान किया जाय तो वह होलकर साम्राज्य की बहू जिन्हे आदर के साथ भारतीय जनमानस लोकमाता देवी अहिल्याबाई के नाम से जानता है, के व्यक्तित्व और कृतित्व में एक साथ मूर्तमान है।
31 मई को लोक माता देवी अहिल्या बाई के धरती पर अवतरण हुए 300 वर्ष पूरे हो जाएंगे। वर्तमान में औरंगाबाद के निकट बीड़ तहसील के चौड़ी गांव के माणकोजी की धर्मपत्नी सुशीलबाई ने 31 मई 1725 को जिस सुकन्या को जन्म दिया उसके पूज्यनीय वंदनीय धर्मपरायण प्रजावत्सल अत्यंत तेजस्वी ओजस्वी प्रेरक व्यक्तित्व को जनमानस देवी माँ अहिल्या बाई के रूप भारतीय मनीषा के स्मृति पटल पर देदीप्यमान है। लोकमाता देवी अहिल्याबाई इतिहास के पन्नों को अमिट स्वर्णाक्षर तो है ही साथ ही भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए उनके द्वारा किए गए कार्य के लिए भारत की सनातन संस्कृति और यहां की धर्म परायण जानता जनार्दन सदैव ऋणी रहेगी।
धर्मपरायण माता पिता के संस्कार अहिल्याबाई के जीवन का आधार बना। अहिल्याबाई को लोक माता देवी अहिल्याबाई का नाम भारत की धर्मप्राण जनता के मन में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व के सम्मान और उनके प्रति असीम श्रद्धा व प्रेम का भावाभिव्यक्ति है।
समूचे भारतीय इतिहास में पौराणिक कथाओं में वर्णित महापुरुषों से लेकर वर्तमान के कालखंड तक उन्ही पूज्यनीय वंदनीय व प्रेरक मानता है जिन्होंने लोककल्याण हेतु अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया महर्षि दधीच, राजा हरिश्चंद्र से वर्तमान में स्वामी रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, सुभाषचंद्र बोस लेकर अनेक महापुरुष इस परम्परा में देखे जा सकते हैं। भारतीय संस्कृति व राष्ट्र ने उन्ही का यशोगान किया जिसने देश समाज व लोकहित में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।
लोकमाता देवी अहिल्या बाई का पूरा जीवन संघर्ष और त्याग का दस्तावेज है। 1733 में मल्हार राव होलकर के बेटे खंडेकर राव की बहू बनने के बाद से ही अनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। कड़ी तपस्या के बाद अपने पति खंडेराव को सन्मार्ग पर लाकर कर्तव्य पथ पर लाने और वैवाहिक सौख्य के कुछ समय बाद पति खंडेराव की 1754 में भरतपुर के डींग में युद्ध में असमय मृत्यु का भयानक वज्रपात, स्वसुर मल्हारराव होलकर के करुण क्रंदन के कारण सती होने के निर्णय को त्यागना, 1761 में पानीपत के युद्ध में मराठों की हार और मई 1766 में आलमपुर में श्वसुर की मृत्यु के बाद होलकर साम्राज्य को सम्हालने पुत्र मालेराव का 23 अगस्त 1766 में तिलक, पुत्र मलेराव का अमर्यादित आचरण, प्रजाहित के विरुद्ध पुत्र का अविवेकी व्यवहार लोकमाता के लिए बहुत ही कष्टकर था 23 वर्ष की अल्प आयु में इकलौते पुत्र का निधन जैसे भयानक दुःख, दामाद यशवंतराव फड़से का हैजे के प्रकोप से 3 नवम्बर 1791 में निधन बेटी मुक्ताबाई द्वारा पति के निधन के बाद सती हो जाना जैसे अनेक हृदयविदारक घटनाओं में जिस धैर्य विवेक और साहस के साथ लोकमाता अहिल्याबाई ने कर्तव्य निभाया और प्रजापालन किया वह अपने आप में महान से भी महान है।
होलकर परिवार की विशेषता रही कि व्यक्तिगत खर्चे के लिए राज्य कोष से धन नहीं लेते थे। देश भर के तीर्थ स्थलों बद्री नारायण, केदारनाथ धाम से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम पूर्व में जगन्नाथ पुरी से लेकर पश्चिम में द्वारका सोमनाथ मंदिर येसा कोई तीर्थस्थल नहीं जंहा देवी अहिल्या द्वारा निर्मित वास्तुशिल्प दिखाई न देता हो। यही नहीं मंदिर और घाटों व तीर्थ यात्रियों की सुविधानुकूल पीने के लिए पानी और ठहरने के बंदोबस्त के साथ उनके कुशल संचालन हेतु सुयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति और संचालन की व्यवस्था तथा उनकी आर्थिक प्रतिपूर्ति के लिए व्यवस्था का निर्माण करने का कार्य किया जो भारतीय संस्कृति के उन्नयन और विकास के लिए देवी अहिल्या का अप्रतिम योगदान है। अहिल्या बाई परम शिव भक्त थी उन्होंने अधिकाधिक संख्या में शिव मंदिरों का निर्माण कराया 1667 में औरंगज़ेब द्वारा काशीविश्वनाथ मंदिर को तोड़फोड़ करने के बाद 1785 में देवी अहिल्याबाई ने भगवान काशीविश्वनाथ मंदिर को पुनः बनाया। सप्तपुरियों व बारह ज्योतिर्लिंगों चारों धाम सभी जगह उन्होंने यात्रियों के लिए स्नान ध्यान पूजा अर्चन निवास व भोजन की समुचित व्यवस्था किया। उन्होंने काशी से कलकत्ता तक सड़क का निर्माण कराया। 1818 में सर माल्कम ने मेमायर्स ऑफ़ सेंट्रल इंडिया में लिखा कि उसका सहायक कैप्टेन ड टी स्टुअर्ट केदारनाथ और देवप्रयाग जैसे दुर्गम तीर्थ स्थानों पर उसे देवी अहिल्या बाई द्वारा निर्मित धर्मशाला तथा कुंड तथा देवी अहिल्या द्वारा संचालित सदावर्त उनके द्वारा निर्मित सिद्धनाथ मंदिर मध्यभारत की सर्वश्रेष्ठ मंदिर शिल्प है।
नारी शक्ति की वंदना भारत की सनातन संस्कृति की मूल अवधारणा है अधशक्ति जगद्जननी की हम सब उपासना करते हैं जो चराचर की स्रष्टा और पालनकर्ता हैं। देवी अहिल्या द्वारा नर्मदा के किनारे महेश्वर में बनाई गई राजधानी और उनका अत्यंत साधारण आवास देखने सभी को जाना चाहिए। खासकर राजनीतिक दलों के नेताओं व कार्यकर्ताओं, प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों व न्याय व्यवस्था से जुड़े लोगों को ताकि वह समझ सकें कि जिस महनीय व्यक्तित्व ने अरबों खरबों भारतीय संस्कृति के उन्नयन में आम जन के लिए खर्च किया उसकी जीवनशैली रहन सहन खर्च उसकी राज्य व्यवस्था प्रशासनिक व्यवस्थित नेतृत्व व न्याय व्यस्था से कुछ सीख ले सके।
लोकमाता देवी अहिल्या बाई की जन्म त्रिशताब्दी मनाना तभी सार्थक होगा जब हम उनके जीवन से कुछ सीख ले सकें। उनके शासन प्रशासन न्याय नेतृत्व इन व्यापक पहुलुओं को किंचित मात्र आत्मसात कर सके। आज जब सार्वजनिक जीवन, प्रशासन, न्याय व्यवस्था से लेकर धर्म भी व्यापार बनता जा रहा है तो राष्ट्रहित, लोकहित व जनहित में यह नितांत आवश्यक है कि हम देवी अहिल्याबाई होलकर के जीवन से कुछ सीख लें।
(उपर्युक्त विचार सामाजिक व राजनीतिक चिंतक हरिश्चंद्र श्रीवास्तव के हैं। )
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